The Outsider – Albert Camus | Merssault’s Absurdism
So I learned that even after a single day’s experience of the outside world a man could easily live a hundred years in prison. He’d have laid up enough memories never to be bored.
So I learned that even after a single day’s experience of the outside world a man could easily live a hundred years in prison. He’d have laid up enough memories never to be bored.
हम संवादों के पीछे पागल हैं। इस कदर पागल कि उसमें जरा सी भी चुप्पी की गुंजाईश दिखते ही घुटन की भविष्यवाणी कर कोई ना कोई निरर्थक शब्द को बीच में ले आकर खुद को बचा लेते हैं। लेकिन अक्सर, नहीं बहुत बार असल संवाद शब्दों से परे होता है। उन उठती, पड़ोस से गुजरती, टटोलती निगाहों में जितना खुद के छुए जाने का सुख है वो शब्दों में नहीं मिल पाता। और अक्सर शब्द झूठा कर देते हैं उस बात को जो हम कहना चाहते हैं।
Most great poetry is like that. If the words can’t create a prophetic tunnel connecting them to the reader, then the whole thing no longer functions as a poem.
झूठ सुनहरा था, भूस की तरह, सत्य उसमे काले सांप की तरह घुस गया। हम डर गए। बहुत। इतना डर गए कि लाठी लेकर भूस के ढेर में सांप मारने लगे। सारा घर भूस के तिनकों से भर गया। दीवार, छत, खिड़की, दरवाजे और हम – सब छोटे छोटे भूस के तिनकों के बीच छिप गए। सांप हाथ नहीं आया… रात में थककर सोने पर पैरों पर कुछ रेंगता महसूस हुआ और हम अकड़ गए, हमने डर कर हाथ जोड़ लिए, तभी कानों में फिस्फिसाती सी आवाज़ आई – ‘डरो मत, मैं तुम्हें नहीं काटूंगा। तुम पर अब भी झूठ के तिनके बिखरे हुए हैं। अभी तुम सत्य के काटे से जीने लायक नहीं हुए।’
बहुत सी रातों में अपने मरने का सपना देखा है। पर मरने के ठीक एक पहले हम आँख खोलकर खुद को मृत्यु से बचा लेते हैं। ये इंसान होने की चालाकी है। पर वो एक क्षण जिसमें हम मृत्यु से जीवन के बीच की दूरी पार करते हैं – वो क्षण भरा मिला है निरीह चुप्पी से। हर बार। जहाँ शब्द हमेशा जो कहा जा रहा है उसके आड़े आए हैं। उस एक क्षण में निश्चित मृत्यु का इंतज़ार है पर मृत्यु नहीं। और फिर तुरंत हमें धड़कन महसूस होती है और हम खुश होकर उस एक क्षण को बीती यादों के बक्से में बंद कर देते हैं।
एक घर, उसमें रहने वाले कुछ लोग और उनकी ज़िंदगी के इर्द गिर्द घूमते संवाद। संक्षेप में तो यह नाटक यही है। परंतु क्या सच में यह नाटक भी इस पंक्ति के जितना ही सतही है? या कुछ और भी है इस नाटक में जो थोड़ा गहरा है, जिसे इन कुछ शब्दों से नहीं समझाया जा सकता है।
चारों तरफ गूँजता नफ़रत का शोर, उस शोर के नशे में डूब चुके लोग और इन सब के बीच मौन बैठी एक बूढ़ी जर्जर होती देह जो सूनी आँखों से यह सब देख रही है। वो भोंसले है, परंतु भोंसले कौन है? मेरे लिए तो भोंसले जवान होती नफ़रत और हिंसा के बीच बूढ़ी होती हमारी मनुष्यता है, हमारी आत्मा है। जिससे हम आँखें नहीं मिला पाते हैं, जिसकी आँखों में देख मानो हम खुद की मर चुकी आत्मा को आईने में देख लेते हैं।
चुप्पी का सबसे सुंदर रूप सोचो : फिर सोचो कुछ उससे भी ज्यादा सुंदर : सोचो, हर व्यक्ति सवालों के घेरे में लड़कर जीता है : जानो, चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु सिर्फ महाभारत में ही नहीं होता: हर कोई अभिमन्यु है अपने जीवन का : ईश्वर रणभूमि में होकर भी तुम्हारे युद्ध में हस्तछेप नहीं करते : वो बस देखते हैं तुम्हारी कर्मठता और तुम्हारे चुनाव।
To all mankind they were addressed, those cries for help still ringing in our ears! But at this place, at this moment of time, all mankind is us, whether we like it or not. Let us make the most of it, before it is too late!
“The argument goes something like this: ‘I refuse to prove that I exist,’ says God, ‘for proof denies faith, and without faith I am nothing.'”
“‘But,’ says Man, ‘The Babel fish is a dead giveaway, isn’t it? It could not have evolved by chance. It proves you exist, and so, therefore, by your own arguments, you don’t. QED.'”
“‘Oh dear,’ says God, ‘I hadn’t thought of that,’ and promptly vanished in a puff of logic.”